फितरत जहाँ की वो नहीं फितरत जहाँ की और है
अब हर घड़ी सहमी हुई सी सोच भी कमजोर है
बात तब ईमान की करते नहीं थे रात में
जो कर रहे रखवालियां अब तो वाही खुद चोर है
अब तक रहे इस सोच में रंग एक है जहान का
अब ये इल्म भी हो गया कि दूसरा भी छोर है
कुछ ख़ास कि हसरत में दौड़ना मुनासिबी भी है
पर जिस तरफ विनाश है उस ही तरफ को दौड़ है
मंदिर में अब भगवान् कि गुल्लक में बड़ा छेद है
उस छेद का हक़दार वो फिलहाल जिसका जोर है
माँ बाप को ठुकरा रही औलाद दौलत के लिए
रंग खून का सफ़ेद है अब सांझ जैसी भोर है
भगवान ही अब चाह कर सकता बचा जहान को
नवजोत को ये आस है उसके ही हाथ डोर है
- नवजोत सिंह तुंग
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